गाय " जिसे हमारे धर्म (हिन्दू) में माता का दर्जा प्राप्त है। अब माता
क्यों कहा जाता है ये सबको पता है। भारत कि गौरवशाली परंपरा में गाय का
स्थान सबसे ऊँचा और अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है। गाय माता की महिमा पर
महाभारत में एक कथा आती है। यह कथा रघुकुल के राजा नहुष और महर्षि च्यवन
की है, जिसे भीष्म पितामह मे महाराजा युधिष्ठिर को सुनाया था।
हे राजन अब मैं उठता हूँ। आपने ने मेरा उचित मूल्य देकर मुझे खरीद लिया
है। क्योंकि इस संसार मे गाय से बढ़कर कोई और धन नहीं है। भारत में वैदिक
काल से ही गाय को माता के समान समझा जाता रहा। गाय कि रक्षा करना, पोषण
करना एवं पुजा करना भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा । वेदो मे कहा गया
है कि पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों का आधार भी गाय को माना जाता है।
क्यों कहा जाता है ये सबको पता है। भारत कि गौरवशाली परंपरा में गाय का
स्थान सबसे ऊँचा और अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा है। गाय माता की महिमा पर
महाभारत में एक कथा आती है। यह कथा रघुकुल के राजा नहुष और महर्षि च्यवन
की है, जिसे भीष्म पितामह मे महाराजा युधिष्ठिर को सुनाया था।
महर्षि
च्यवन जलकल्प करनें के लिए जल में समाधि लगाये बैठे थे। एक दिंन मछुआरों
ने उसी स्थान पर मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल फेंका। जाल में मछलियों के साथ
महर्षि च्यवन भी समाधि लगाये खिंचे चले आयें, उनको देखकर मछुआरों ने उनसे
माफी मांगी। और उन्होने कहा की ये सब गलती से हो गया। तब महर्षि च्यवन ने
कहा " यदि ये मछलियाँ जिएँगी तो मै भी जीवन धारण करुँगा अन्यथा नहीं। तब
ये बात वहाँ के राजा नहुष के पास पहुची, राजा नहुष वहा अपने मंत्रीमण्डल
के साथ तत्काल पहुचे और कहा
च्यवन जलकल्प करनें के लिए जल में समाधि लगाये बैठे थे। एक दिंन मछुआरों
ने उसी स्थान पर मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल फेंका। जाल में मछलियों के साथ
महर्षि च्यवन भी समाधि लगाये खिंचे चले आयें, उनको देखकर मछुआरों ने उनसे
माफी मांगी। और उन्होने कहा की ये सब गलती से हो गया। तब महर्षि च्यवन ने
कहा " यदि ये मछलियाँ जिएँगी तो मै भी जीवन धारण करुँगा अन्यथा नहीं। तब
ये बात वहाँ के राजा नहुष के पास पहुची, राजा नहुष वहा अपने मंत्रीमण्डल
के साथ तत्काल पहुचे और कहा
" अर्धं राज्यं च मूल्यं नाहार्मि पार्थिव।
सदृशं दीयतां मूल्यमृषिभिः सह चिंत्यताम।।
अनर्घेया महाराजा द्विजा वर्णेषु चित्तमाः ।
गावश्चय पुरुषव्याघ्र गौर्मूल्यं परिकल्प्यतम्।।
हे
पार्थिव आपका आधा या संपूर्ण राज्य भी मेरा मूल्य नहीं दे सकता। अतः आप
ऋषियो से विचार कर मेरा उचित मूल्य दीजिए। तब राजा नहुष ने ऋषियो से पुछा
तब ऋषियों ने राजा बताया कि गौ माता का कोई मूल्य नहीं है अतः आप गौदान
करके महर्षि को खुश कर दीजिए। राजा ने ऐसा ही किया और तब महर्षि च्यवन ने
कहा
पार्थिव आपका आधा या संपूर्ण राज्य भी मेरा मूल्य नहीं दे सकता। अतः आप
ऋषियो से विचार कर मेरा उचित मूल्य दीजिए। तब राजा नहुष ने ऋषियो से पुछा
तब ऋषियों ने राजा बताया कि गौ माता का कोई मूल्य नहीं है अतः आप गौदान
करके महर्षि को खुश कर दीजिए। राजा ने ऐसा ही किया और तब महर्षि च्यवन ने
कहा
" उत्तिष्ठाम्येष राजेंद्र सम्यक् क्रीतोSस्मि तेSनघ।
गोभिस्तुल्यं न पश्यामि धनं किंचिदिहाच्युत।।
हे राजन अब मैं उठता हूँ। आपने ने मेरा उचित मूल्य देकर मुझे खरीद लिया
है। क्योंकि इस संसार मे गाय से बढ़कर कोई और धन नहीं है। भारत में वैदिक
काल से ही गाय को माता के समान समझा जाता रहा। गाय कि रक्षा करना, पोषण
करना एवं पुजा करना भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा । वेदो मे कहा गया
है कि पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों का आधार भी गाय को माना जाता है।
इतना
कुछ होने के बावजुद गाय के मांसो का बड़ा व्यापार भारत व उससे बाहर हो रहा
है। और हम मजबुर वस अपनी माँ को कटते देख रहे है और कुछ भी नहीं कर पा रहे
है। जिस तरह से इनको सरेआम काटा जा रहा ठीक वैसे ही इनको काटने वालो का सर
कलम कर दिया जाना चाहिये। ताकी कोई ऐसी घिनौनी हरकत ना कर सके।
कुछ होने के बावजुद गाय के मांसो का बड़ा व्यापार भारत व उससे बाहर हो रहा
है। और हम मजबुर वस अपनी माँ को कटते देख रहे है और कुछ भी नहीं कर पा रहे
है। जिस तरह से इनको सरेआम काटा जा रहा ठीक वैसे ही इनको काटने वालो का सर
कलम कर दिया जाना चाहिये। ताकी कोई ऐसी घिनौनी हरकत ना कर सके।
भारत
मे गायों की सख्या व उनकी खत्म होती नस्ले इस बात का सबुत है कि किस तरह
से उनको देश के बाहर भोजन स्वरुप भेजा रहा है। खाद्यान्न उत्पादन आज भी गो
वंश पर आधारित है। आजादी तक देश में गो वंश की 80 नस्ल थी जो घटकर 32 रह
गई है। यदि गाय को नही बचाया तो संकट आ जाएगा क्योंकि गाय से ग्राम और
ग्राम से ही भारत है। १९४७ में एक हजार भारतीयों पर ४३० गोवंश उपलब्ध थे।
२००१ में यह आँकड़ा घटकर ११० हो गयी और २०११ में यह आँकड़ा घटकर २० गोवंश
प्रति एक हजार व्यक्ति हो जाने का अनुमान है। इससे ये अन्दाजा लगाया जा
सकता है कि जिसे हम माँ कहते है उनका क्या हाल है।
मे गायों की सख्या व उनकी खत्म होती नस्ले इस बात का सबुत है कि किस तरह
से उनको देश के बाहर भोजन स्वरुप भेजा रहा है। खाद्यान्न उत्पादन आज भी गो
वंश पर आधारित है। आजादी तक देश में गो वंश की 80 नस्ल थी जो घटकर 32 रह
गई है। यदि गाय को नही बचाया तो संकट आ जाएगा क्योंकि गाय से ग्राम और
ग्राम से ही भारत है। १९४७ में एक हजार भारतीयों पर ४३० गोवंश उपलब्ध थे।
२००१ में यह आँकड़ा घटकर ११० हो गयी और २०११ में यह आँकड़ा घटकर २० गोवंश
प्रति एक हजार व्यक्ति हो जाने का अनुमान है। इससे ये अन्दाजा लगाया जा
सकता है कि जिसे हम माँ कहते है उनका क्या हाल है।
गाय
पुराने समाज के लिये पशु नहीं था... वह हमारी धरती पर खड़ी जीवित देवशक्ति
थी... बल्कि समस्त देवताओं की आभा लिये उन्हीं अव्यक्त सत्ताओं की
प्रतिनिधि थी। उस गाय को काटने-मारने के कारण ही यह भारत राष्ट्र इतनी
मेधा-प्रतिभा और संसाधनों, श्री-समृद्धि के स्रोतों के बावजूद यदि गरिब तो
यह उसी गो-माता का शाप है.हमारा सहस्त्रों वर्षो का चिन्तन, हमारे योगी,
तापस, विद्यायें सब लुप्त हो गये... और जो कबाड़ शेष बचा है वही समाज के
सब मंचों पर खड़ा होकर राश्ट्र का प्रतिनिधि बन बैठा है। प्रतिभा अपमानित
है, जुगाड़ और जातियों के बैल राष्ट्र को विचार के सभी स्तरों पर हांक रहे
हैं, गाय को काटने वालों ने भारतीय समाज की आत्मा को ही बीच से काट डाला
है गाय के कटने पर हमारा ‘शीश’ कट कर गिर पड़ा है. हम जीवित हिन्दू उस गाय
के बिना कबन्ध हैं, इस कबन्ध के लिये ही मारा-मारी में जुटे हैं अपराध,
भ्रष्टाचार और राजनीति का दलिद्दर चेहरा ऐसे ही कबन्ध रूपी समाज में चल
सकता था... वरना आज यदि उस गो-माता के सींग का भय होता... तो आपकी
गृहलक्ष्मी आपको बताती कि भ्रष्टाचार और दलिद्दर विचारों के साथ आप आंगन
में कैसे प्रवेश कर सकते हैं ।
पुराने समाज के लिये पशु नहीं था... वह हमारी धरती पर खड़ी जीवित देवशक्ति
थी... बल्कि समस्त देवताओं की आभा लिये उन्हीं अव्यक्त सत्ताओं की
प्रतिनिधि थी। उस गाय को काटने-मारने के कारण ही यह भारत राष्ट्र इतनी
मेधा-प्रतिभा और संसाधनों, श्री-समृद्धि के स्रोतों के बावजूद यदि गरिब तो
यह उसी गो-माता का शाप है.हमारा सहस्त्रों वर्षो का चिन्तन, हमारे योगी,
तापस, विद्यायें सब लुप्त हो गये... और जो कबाड़ शेष बचा है वही समाज के
सब मंचों पर खड़ा होकर राश्ट्र का प्रतिनिधि बन बैठा है। प्रतिभा अपमानित
है, जुगाड़ और जातियों के बैल राष्ट्र को विचार के सभी स्तरों पर हांक रहे
हैं, गाय को काटने वालों ने भारतीय समाज की आत्मा को ही बीच से काट डाला
है गाय के कटने पर हमारा ‘शीश’ कट कर गिर पड़ा है. हम जीवित हिन्दू उस गाय
के बिना कबन्ध हैं, इस कबन्ध के लिये ही मारा-मारी में जुटे हैं अपराध,
भ्रष्टाचार और राजनीति का दलिद्दर चेहरा ऐसे ही कबन्ध रूपी समाज में चल
सकता था... वरना आज यदि उस गो-माता के सींग का भय होता... तो आपकी
गृहलक्ष्मी आपको बताती कि भ्रष्टाचार और दलिद्दर विचारों के साथ आप आंगन
में कैसे प्रवेश कर सकते हैं ।
जब
कोई हमारी माँ को इस बर्बरता से काट से सकते है तो हम उनका सर क्यो कलम
नहीं कर सकते जो हमारी जनंनी को हमसे छिनने की कोशिश कर रहा है। आखिर कब
तक हम यूँ ही देखते रहेंगे , कब तक ? कहीं ऐसा ना हो कि बहुत देर हो चुकी
हो, अब समय आ गया है उठ खड़े होने का। और इस लड़ाई में सबसे आगे हिन्दुओं
को होना चाहिए, क्योंकी ये खिलवाड़ हमारे अस्मत के साथ हो रही है। हमे
किसी और का इन्तजार नहीं करना चाहिए। यूरोप में मांस की अत्यधिक मांग होने
के कारण, अंग्रेज विचारक चील-कौवों की तरह गाय के चारों ओर मंडराने लगे।
गो-धन को समाप्त करने के लिये उन्होंने अंग्रेजी स्कूलों से शिक्षा
प्राप्त नीति निर्धारकों, इन फाइल-माफियाओं को फैक्ट्री दर्शन के पाठ
पढ़ाये... अनाज की कमी का भय दिखाकर रासायनिक-खाद की फैक्ट्रियां लगीं,
दूध की कमी का रोना रोकर दूध के डिब्बे फैक्ट्रियों में तैयार होने लगे,
घी, मक्खन सभी कुछ डिब्बा बन्द... ताकि गो-मांस को निर्बाध निर्यात किया
जा सके शहरों में रहने वाले मध्यमवर्ग ने इन उत्पादों की चमक के कारण गाय
के शरीर से आंखें फेरलीं । वह गोबर, गोमूत्र को भूलता चला गया और देश में
गाय सहित हजारों पशुओं को काटने वाले कत्लगाह खुलने पर ऋषियों के पुत्र एक
शब्द नहीं बोले. वे इन दूध के डिब्बों से एक चम्मच पाउडर निकाल कर चाय की
चुस्कियां भर कर अंग्रेजी अखबार पढ़ते रहे ।
कोई हमारी माँ को इस बर्बरता से काट से सकते है तो हम उनका सर क्यो कलम
नहीं कर सकते जो हमारी जनंनी को हमसे छिनने की कोशिश कर रहा है। आखिर कब
तक हम यूँ ही देखते रहेंगे , कब तक ? कहीं ऐसा ना हो कि बहुत देर हो चुकी
हो, अब समय आ गया है उठ खड़े होने का। और इस लड़ाई में सबसे आगे हिन्दुओं
को होना चाहिए, क्योंकी ये खिलवाड़ हमारे अस्मत के साथ हो रही है। हमे
किसी और का इन्तजार नहीं करना चाहिए। यूरोप में मांस की अत्यधिक मांग होने
के कारण, अंग्रेज विचारक चील-कौवों की तरह गाय के चारों ओर मंडराने लगे।
गो-धन को समाप्त करने के लिये उन्होंने अंग्रेजी स्कूलों से शिक्षा
प्राप्त नीति निर्धारकों, इन फाइल-माफियाओं को फैक्ट्री दर्शन के पाठ
पढ़ाये... अनाज की कमी का भय दिखाकर रासायनिक-खाद की फैक्ट्रियां लगीं,
दूध की कमी का रोना रोकर दूध के डिब्बे फैक्ट्रियों में तैयार होने लगे,
घी, मक्खन सभी कुछ डिब्बा बन्द... ताकि गो-मांस को निर्बाध निर्यात किया
जा सके शहरों में रहने वाले मध्यमवर्ग ने इन उत्पादों की चमक के कारण गाय
के शरीर से आंखें फेरलीं । वह गोबर, गोमूत्र को भूलता चला गया और देश में
गाय सहित हजारों पशुओं को काटने वाले कत्लगाह खुलने पर ऋषियों के पुत्र एक
शब्द नहीं बोले. वे इन दूध के डिब्बों से एक चम्मच पाउडर निकाल कर चाय की
चुस्कियां भर कर अंग्रेजी अखबार पढ़ते रहे ।
यूरोप
से आयातित मांसल सभ्यता के अचार पर चटकारें मारते रहे , और गो-माता हमारे
जीवन से अदश्य हो गयी क्योंकि गोबर की जगह यूरिया की बोरियों ने ले ली,
बैल की घन्टियों की जगह कृशि जीवन को आक्रान्त करने वाले ट्रैक्टर आ गये
तर्क है कि अनाज की कमी पूरी हो गयी ।. यदि हम यूरिया के कारण आत्म निर्भर
हैं तो हमारा किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है? गेहूँ आयात क्यों किया जा
रहा है...? आप के बन्दर मुखी बुद्धिजीवी जब मंहगें होटलों में बैठकर ये जो
‘जैविक-जैविक’ का जप करते रहे हैं, क्या उनके गालों पर झापड़ रसीद की
जाय...? यूरोप-अमेरिका कब तक हमें मूर्ख बनायेगा...? हमारी ही गायों को
उबाल कर खाने वाले ये दैत्य, हमें ही प्रकृति से जुड़ने की शिक्षायें देते
हैं, खेती-जंगल-जल से पवित्र सम्बन्ध रखने वाले भारतीय समाज की ऐसी-तैसी
करके भाई लोग पर्यावरण पर उस समाज को शिक्षायें देते हैं। जिनके जीवन में
‘गाय’ की पूछ पकड़े बिना मुक्ति की कामना नहीं, पेड़ जिनके धार्मिक-चिह्न
है, नदियाँ जिनकी मां हैं, जहाँ घाटों, नदियों, गायों के व्यक्तियों की
तरह नाम हैं, ताकि उनके न रहने पर, समाज में उनकी स्मृति बनी रहे, उस
वृद्ध और घाघ समाज को सेमिनारों में पाठ पढाये जा रहे हैं... वो भी हमारे
ही खर्चे पर... हद है। गो-माता जब से पशु
बनी तभी से हम भारतीयों का समाज भी कबन्ध हो गया है गाय, इस भौतिक जगत और
अव्यक्त सत्ता के बीच खड़ा जीवित माध्यम है, उस विराट के समझने का
प्रवेषद्वार है जो लोग, जो सभ्यतायें, जो धर्म, गाय को मार-काट कर खा-पका
रहे हैं, वे प्रभु और अपने बीच के माध्यम को जड़ बना रहे हैं। वे जीवित
धर्म का ध्वंश कर रहे हैं, अब चाहे वे धर्म के नाम पर जितनी बड़ी
अट्टालिकायें गुंबद बना लें, वे परमात्मा की कृपा से तब तक वंचित रहेंगें,
जब तक वे गाय को अध्यात्मिक दृश्टि से नहीं देखेगें वैसे विटामिन, प्रोटीन
और पौश्टिकता से भरे तो कई डिब्बे, और कैप्सूल बाजार में उपलब्ध हैं। यदि
ऋषियों ने भौतिक-रासायनिक गुणों के कारण गाय को पूजनीय माना होता, तो
हिन्दू आज इन दूध के डिब्बों, कैप्सूलों की भी पूजा कर रहा होता विज्ञान
वही नहीं है जो अमेरिका में है, विज्ञान का नब्बे प्रतिशत तो अभी अव्यक्त
है, अविश्कृत होना है, हमने अन्तर्यात्रायें कर के उसकी झलक सभ्य संसार को
दिखाई थी, असभ्यों ने वो समस्त पोथी-पुस्तक ही जला दिये... गाय बची है...
उस माता की पूंछ ही वह आखिरी आशा है जिसे पकड़ कर हम पुनः महाविराट सत्ता
का अनावरण कर सकते हैं ।
से आयातित मांसल सभ्यता के अचार पर चटकारें मारते रहे , और गो-माता हमारे
जीवन से अदश्य हो गयी क्योंकि गोबर की जगह यूरिया की बोरियों ने ले ली,
बैल की घन्टियों की जगह कृशि जीवन को आक्रान्त करने वाले ट्रैक्टर आ गये
तर्क है कि अनाज की कमी पूरी हो गयी ।. यदि हम यूरिया के कारण आत्म निर्भर
हैं तो हमारा किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है? गेहूँ आयात क्यों किया जा
रहा है...? आप के बन्दर मुखी बुद्धिजीवी जब मंहगें होटलों में बैठकर ये जो
‘जैविक-जैविक’ का जप करते रहे हैं, क्या उनके गालों पर झापड़ रसीद की
जाय...? यूरोप-अमेरिका कब तक हमें मूर्ख बनायेगा...? हमारी ही गायों को
उबाल कर खाने वाले ये दैत्य, हमें ही प्रकृति से जुड़ने की शिक्षायें देते
हैं, खेती-जंगल-जल से पवित्र सम्बन्ध रखने वाले भारतीय समाज की ऐसी-तैसी
करके भाई लोग पर्यावरण पर उस समाज को शिक्षायें देते हैं। जिनके जीवन में
‘गाय’ की पूछ पकड़े बिना मुक्ति की कामना नहीं, पेड़ जिनके धार्मिक-चिह्न
है, नदियाँ जिनकी मां हैं, जहाँ घाटों, नदियों, गायों के व्यक्तियों की
तरह नाम हैं, ताकि उनके न रहने पर, समाज में उनकी स्मृति बनी रहे, उस
वृद्ध और घाघ समाज को सेमिनारों में पाठ पढाये जा रहे हैं... वो भी हमारे
ही खर्चे पर... हद है। गो-माता जब से पशु
बनी तभी से हम भारतीयों का समाज भी कबन्ध हो गया है गाय, इस भौतिक जगत और
अव्यक्त सत्ता के बीच खड़ा जीवित माध्यम है, उस विराट के समझने का
प्रवेषद्वार है जो लोग, जो सभ्यतायें, जो धर्म, गाय को मार-काट कर खा-पका
रहे हैं, वे प्रभु और अपने बीच के माध्यम को जड़ बना रहे हैं। वे जीवित
धर्म का ध्वंश कर रहे हैं, अब चाहे वे धर्म के नाम पर जितनी बड़ी
अट्टालिकायें गुंबद बना लें, वे परमात्मा की कृपा से तब तक वंचित रहेंगें,
जब तक वे गाय को अध्यात्मिक दृश्टि से नहीं देखेगें वैसे विटामिन, प्रोटीन
और पौश्टिकता से भरे तो कई डिब्बे, और कैप्सूल बाजार में उपलब्ध हैं। यदि
ऋषियों ने भौतिक-रासायनिक गुणों के कारण गाय को पूजनीय माना होता, तो
हिन्दू आज इन दूध के डिब्बों, कैप्सूलों की भी पूजा कर रहा होता विज्ञान
वही नहीं है जो अमेरिका में है, विज्ञान का नब्बे प्रतिशत तो अभी अव्यक्त
है, अविश्कृत होना है, हमने अन्तर्यात्रायें कर के उसकी झलक सभ्य संसार को
दिखाई थी, असभ्यों ने वो समस्त पोथी-पुस्तक ही जला दिये... गाय बची है...
उस माता की पूंछ ही वह आखिरी आशा है जिसे पकड़ कर हम पुनः महाविराट सत्ता
का अनावरण कर सकते हैं ।
विदेशो
में तो गायो के मांस का व्यापार तो हो ही रहा है, लेकिन बड़े दुःख की बात
ये है कि हमारे देश मे भी ये धड़ल्ले से हो रहे है, पीलीभीत जो की उत्तर
प्रदेश के अन्तर्गत आता है जो मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र माना जाता है। ।
वहा इस साल केवल दो महिनें मे (मार्च और अप्रैल) में पाँच सौ से ज्यादा
गायो की बली दी गयी इस बात की जानकारीं सरकार को भी दी गयी लेकिन सरकार
हाथ पे हाथ रखकर हम हिन्दुओं के साथ खिलवाड़ कर रही है। ब्रिटिश एयरवेज का
भारत में बहुत बड़ा व्यापार है ये सबको को मालुम है। इसमें खाने मेन्यू
में गाय के मांस को चाव से परोसा जा रहा है, और जब इसका विरोध किया गया तो
ब्रटिश एयरवेज वालो ने गाय मांस को इकोनामिक क्लास से हटा दिया, परन्तु
फर्स्ट और क्लब वर्ल्ड में गोमांस अब भी परोसे जा रहे है, जो की बड़े दुःख
की बात है। ये तो बात रही देश की, अब जरा हम अपने आस पास देखते है जहाँ
हमारे माँ को कैसे बेचा जा रहा है। बाजार मे मिलने वाले सौन्दर्य
प्रसाधनों में ज्यादातर गाय मांस का प्रयोग किया जाता है। ग्लिसरिन और
पेपसिन आप और हम सभी जानते हैं, और इसका प्रयोग सौन्दर्य प्रसाधनो में
सबसे ज्यादा किया जाता है। ग्लिसरिन और पेपसिन का ही रुप है जेलेटिन । गाय
के मांस और खाल को उबाला जाता है और जो चिकना पदार्थ निकलता है उसे
जिलेटिन कहते है, और जिलेटिन के निचले सतह को ग्लिसरिन कहा जाता है।
ग्लिसरिन का कारोबार हमारे देश में जोरो से चल रहा है। तो जाहिर सी बात है
मांसो के लिए गायो को काटा जाता है। मुसलमानो के यहाँ बकरीद के अवसर पर अब
भी गायो की बली दी जाती है। सबसे ज्यादा गायों को पाकिस्तान , अफगानिस्तान
और अरब देशो में काटा जाता है। जबकि अरब जहाँ इस्लाम का जन्म हुआ है वहाँ
गायों को काटना अनिवार्य है । भारत में भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से रुप
से बकरीद के दिनं गायो को काटा जाता है, और प्रशासन कुछ नहीं करती । जबकि
पहले मुगल शासक बाबर ने गो ह्त्या पर पाबंदी लगा दी थी और अपने बेटे
हुमायूं को भी गाय न काटने की सलाह दी थी।
में तो गायो के मांस का व्यापार तो हो ही रहा है, लेकिन बड़े दुःख की बात
ये है कि हमारे देश मे भी ये धड़ल्ले से हो रहे है, पीलीभीत जो की उत्तर
प्रदेश के अन्तर्गत आता है जो मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र माना जाता है। ।
वहा इस साल केवल दो महिनें मे (मार्च और अप्रैल) में पाँच सौ से ज्यादा
गायो की बली दी गयी इस बात की जानकारीं सरकार को भी दी गयी लेकिन सरकार
हाथ पे हाथ रखकर हम हिन्दुओं के साथ खिलवाड़ कर रही है। ब्रिटिश एयरवेज का
भारत में बहुत बड़ा व्यापार है ये सबको को मालुम है। इसमें खाने मेन्यू
में गाय के मांस को चाव से परोसा जा रहा है, और जब इसका विरोध किया गया तो
ब्रटिश एयरवेज वालो ने गाय मांस को इकोनामिक क्लास से हटा दिया, परन्तु
फर्स्ट और क्लब वर्ल्ड में गोमांस अब भी परोसे जा रहे है, जो की बड़े दुःख
की बात है। ये तो बात रही देश की, अब जरा हम अपने आस पास देखते है जहाँ
हमारे माँ को कैसे बेचा जा रहा है। बाजार मे मिलने वाले सौन्दर्य
प्रसाधनों में ज्यादातर गाय मांस का प्रयोग किया जाता है। ग्लिसरिन और
पेपसिन आप और हम सभी जानते हैं, और इसका प्रयोग सौन्दर्य प्रसाधनो में
सबसे ज्यादा किया जाता है। ग्लिसरिन और पेपसिन का ही रुप है जेलेटिन । गाय
के मांस और खाल को उबाला जाता है और जो चिकना पदार्थ निकलता है उसे
जिलेटिन कहते है, और जिलेटिन के निचले सतह को ग्लिसरिन कहा जाता है।
ग्लिसरिन का कारोबार हमारे देश में जोरो से चल रहा है। तो जाहिर सी बात है
मांसो के लिए गायो को काटा जाता है। मुसलमानो के यहाँ बकरीद के अवसर पर अब
भी गायो की बली दी जाती है। सबसे ज्यादा गायों को पाकिस्तान , अफगानिस्तान
और अरब देशो में काटा जाता है। जबकि अरब जहाँ इस्लाम का जन्म हुआ है वहाँ
गायों को काटना अनिवार्य है । भारत में भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से रुप
से बकरीद के दिनं गायो को काटा जाता है, और प्रशासन कुछ नहीं करती । जबकि
पहले मुगल शासक बाबर ने गो ह्त्या पर पाबंदी लगा दी थी और अपने बेटे
हुमायूं को भी गाय न काटने की सलाह दी थी।
गावो विश्ववस्य मातरः।
भारतीय
चिंतनपद्धति में, चाहे वह किसी भी पंथ या मान्यता से अनुप्राणित हो, गाय
को आदिकाल से ही पुज्यनीय माना गया हैं, और उसके बध को को महापाप समझा
जाता रहा है। वेदो, शास्त्रों, एव पुराणो के अलावा कुरान, बाइबिल,
गुरुग्रन्थं साहिब तथा जैन एंव बौद्ध धर्मग्रन्थों में भी गाय को मारना
मनुष्य को मारने जैसा समझा जाता है। कुरान में आया है कि गाय की कुर्बानी
इस्लाम धर्म कर खिलाफ है। इस प्रकार देखा जाये तो सभी धर्मों नें गाय की
महत्ता को समान रुप से सर्वोपरि माना है। लेकिन इन सबके बावजुद कुछ
निकम्मे व कूठिंत सोच वाले लोग है जो की कहते है बिना गाय की बली दिये हुए
त्योहार अधुरा रह जाता है। ये वे समय है जब हमे जैसा को तैसा वाला नियम
अपनाना पड़ेगा, अन्यथा इसका परिणाम क्या होगा ये हम सब अनुमानित कर सकते
है। कहीं ऐसा ना हो कि जिसे हम माता कहके बुलाते है वह बस तस्विर बनकर ही
रह जाये आने वाले समयं में। गौ माता की रक्षा भारतीय संस्कृति और हिन्दू
धर्म के गौरव व आत्म सम्मान की रक्षा का अभिन्न अंग है। यह अजीब विडंबना
है कि कि जब तक हमारे परंपरागत ज्ञान को को पश्चिमी दुनिया व अन्य धर्म
वाले मान्यता नहीं दते, हम सकुचाये- से रहते हैं और अन्य धर्म के विचारकों
द्वारा उसे स्वीकार करते ही मान लेते है। हम जो सो रहे, हमारे आखों मे
पट्टी नुमा बेड़िया पड़ी है, उसे अब निकाल फेकना होगा और निर्णय लेना
पड़ेगा। गौ माता की रक्षा लिए हमें संकल्प लेना पड़ेगा। हिन्दू धर्म,
बल्कि समूची मानव जाति के विकास के लिए गौ माता की रक्षा को परम कर्तव्य
बनाना पड़ेगा।
चिंतनपद्धति में, चाहे वह किसी भी पंथ या मान्यता से अनुप्राणित हो, गाय
को आदिकाल से ही पुज्यनीय माना गया हैं, और उसके बध को को महापाप समझा
जाता रहा है। वेदो, शास्त्रों, एव पुराणो के अलावा कुरान, बाइबिल,
गुरुग्रन्थं साहिब तथा जैन एंव बौद्ध धर्मग्रन्थों में भी गाय को मारना
मनुष्य को मारने जैसा समझा जाता है। कुरान में आया है कि गाय की कुर्बानी
इस्लाम धर्म कर खिलाफ है। इस प्रकार देखा जाये तो सभी धर्मों नें गाय की
महत्ता को समान रुप से सर्वोपरि माना है। लेकिन इन सबके बावजुद कुछ
निकम्मे व कूठिंत सोच वाले लोग है जो की कहते है बिना गाय की बली दिये हुए
त्योहार अधुरा रह जाता है। ये वे समय है जब हमे जैसा को तैसा वाला नियम
अपनाना पड़ेगा, अन्यथा इसका परिणाम क्या होगा ये हम सब अनुमानित कर सकते
है। कहीं ऐसा ना हो कि जिसे हम माता कहके बुलाते है वह बस तस्विर बनकर ही
रह जाये आने वाले समयं में। गौ माता की रक्षा भारतीय संस्कृति और हिन्दू
धर्म के गौरव व आत्म सम्मान की रक्षा का अभिन्न अंग है। यह अजीब विडंबना
है कि कि जब तक हमारे परंपरागत ज्ञान को को पश्चिमी दुनिया व अन्य धर्म
वाले मान्यता नहीं दते, हम सकुचाये- से रहते हैं और अन्य धर्म के विचारकों
द्वारा उसे स्वीकार करते ही मान लेते है। हम जो सो रहे, हमारे आखों मे
पट्टी नुमा बेड़िया पड़ी है, उसे अब निकाल फेकना होगा और निर्णय लेना
पड़ेगा। गौ माता की रक्षा लिए हमें संकल्प लेना पड़ेगा। हिन्दू धर्म,
बल्कि समूची मानव जाति के विकास के लिए गौ माता की रक्षा को परम कर्तव्य
बनाना पड़ेगा।
गो हत्या का काला अध्याय
- १७६० – राबर्ट क्लाइव ने कोलकाता में पहला कसाईखाना खोला ।
- १८६१ – रानी विक्टोरिया ने भारत के वाइसराय को लिख कर गायों के प्रति भारतीयों की भावनाओं को आहत करने को उकसाया ।
- १९४७ – स्वतंत्रता के समय भारत में ३०० से कुछ अधिक कल्लगाह थे । आज ३५,००० अधिकृत और लाखों अनधिकृत वधशालाएँ हैं ।
- गाय की प्रजातियाँ ७० से घटकर ३३ रह गई हैं । इनमें भी कुछ तो लुप्त होने के कगार पर हैं ।
- स्वतंत्रता के बाद गायों की संख्या में ८० प्रतिशत की गिरावट आई है ।
- १९९३-९४ भारत ने १,०१,६६८ टन गोमांस निर्यात किया । १९९४-९५ का लक्ष्य दो लाख टन था ।
- हम वैनिटी बैग और बेल्ट के लिये गाय का चमड़ा, मन्जन के लिये हड्डियों का चूर्ण, विटामिन की गोलियों के लिये रक्त और सोने-चांदी के वर्कों हेतु बछड़े की आंतें पाने के लिये गो हत्या करते हैं ।
- ऐसा समझा जाता है कि १९९३ में लातूर और १९९४ में बिहार जैसे भूकंपों के पीछे गो हत्या का कारण है ।
पर्यावरण और गाय
कृषि, खाद्य, औषधि और उद्योगों का हिस्सा के कारण पर्यावरण की बेहतरी में गाय का बड़ा योगदान है ।
- प्राचीन ग्रंथ बताते हैं कि गाय की पीठ पर के सूर्यकेतु स्नायु हानिकारक विकीरण को रोख कर वातावरण को स्वच्छ बनाते हैं । गाय की उपस्थिति मात्र पर्यावरण के लिए एक महत्वपूर्ण योगदान है ।
- भारत में करीब ३० करोड़ मवेशी हैं । बायो-गैस के उत्पादन में उनके गोबर का प्रयोग कर हम ६ करोड़ टन ईंधन योग्य लकड़ी प्रतिवर्ष बचा सकते हैं । इससे वनक्षय उस हद तक रुकेगा ।
- गोबर का पर्यावरण की रक्षा में महत्वपूर्ण भाग है ।
- गोबर के जलन से वातावरण का तापमान संतुलित होता है और वायु के कीटाणुओं का नाश ।
- गोबर में विष, विकिरण और उष्मा के प्रतिरोध की क्षमता होती है । जब हम दीवारों पर गोबर पोतते हैं और फर्श को गोबर से साफ करते हैं तो रहनेवालों की रक्षा होती है । १९८४ में भोपाल में गैस लीक से २०,००० से अधिक लोग मरे । गोबर पुती दीवारों वाले घरों में रहने वालों पर असर नहीं हुआ । रूस और भारत के आणविक शक्ति केंद्रों में विकीरण के बचाव हेतु आज भी गोबर प्रयुक्त होता है ।
- गोबर से अफ्रीकी मरूभूमि को उपजाऊ बनाया गया ।
- गोबर के प्रयोग द्वारा हम पानी में तेजाब की मात्रा घटा सकते हैं ।
- जब हम संस्कार कर्मों में घी का प्रयोग करते है तो ओजोन की परत मजबूत होती है और पृथ्वी हानिकारक सौर विकिरण से बचती है ।
- बढ़ते हुए कल्लगाहों और भूकंपों के बीच का संबंध प्रमाणित होता जा रहा है ।
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