मासाहार तो कुत्ते का भोजन है ! मनुष्य शरीर पाकर जो इसे खायेंगे वह अवश्य नरक में पड़ेंगे !(संत कबीर )
मांस खाय ते ढेड़ सब, मद पीवै सो नीच
कुल की दुरगति परिहरै, राम कहैं सो ऊंच
संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि जो मांस खाते हैं वह सब मूर्ख हैं और जो मदिरा पीते हैं वह नीच प्रवृति के हैं। जिनके कुल में इनके सेवन की परंपरा है उनका त्याग कर जो राम का नाम लेते हैं वह ऊंच है और उनका सम्मान करना चाहिऐ।
व्याख्या-आजकल समाज में मांस और मदिरा के सेवन की प्रवृति बढ़ रही है और तो और जिन शादी-विवाहों को हमारे समाज में पवित्र अनुष्ठान माना जाता है उनमें तो अब खुले आम मदिरा का सेवन होता है और कई जगह तो भोजन में मांसाहारी वस्तुएं भी परोसी जाने लगीं हैं। यह हमारे समाज के नैतिक और आध्यात्मिक पतन की चरम सीमा है। अगर कबीर जी के उक्त कथन को देखें और अपने समाज की वर्तमान स्थिति पर आत्ममंथन करें तो पायेंगे कि हम निम्नकोटि के होते जा रहे हैं। पहले कोई शराब पीता था तो कहते थे कि वह नीच है पर आज लोग आधुनिकता के नाम पर मदिरा खुले आम पी रहे हैं।
मगर सत्य तो सत्य हैं बदल नहीं सकता। मांसभक्षण और मदिरा का सेवन अगर आदमी के अधम होने का प्रमाण है तो वह बदल नहीं सकता। दिलचस्प बात यह है कि कबीरदास जी ने सदियों पहले यह बात कही थी वह वह आज भी प्रासंगिक है। हम गर्व करते हैं कि हमारा देश विश्व का आध्यात्मिक गुरु है और नैतिक पतन की तरफ जा रहे हैं। अब तो विदेशों में भी कबीर दर्शन पर चर्चा होने लगी है और हम किताबों में रखी अपनी आध्यात्मिक संपदा को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति को अपना रहे हैं। बेहतर हो हम आत्ममंथन करें। जिस मनुष्य का जन्म और पालन-पोषण माँसाहारी कुल और वातावरणमेँ हुआ है और लड़कपन से जिसका वैसा स्वभाव है, उसके लिए भी माँसाहार सर्वथा त्याज्य है । मनुष्य को विवेक की बड़ी सम्पत्ति प्राप्त है, जब उसको यह समझ आ जाय कि दूसरोँ के द्वारा पीड़ा पहुँचाने पर या मारने पर मुझे दुःख होता है, तभी से उसको यह सोचना चाहिए कि जैसा दुःख मुझको होता है, ऐसा ही दूसरे प्राणियोँ को भी होता है । और दूसरे प्राणियोँ के मरने-मारने के समय होनेवाले भयंकर कष्टको माँसाहारी देखता-सुनता भी है । ऐसी हालतमेँ मनुष्य होने के कारण उसके लिए माँसाहार करना पाप ही है और उसे माँसाहार को पाप समझकर तुरंत ही त्याग देना चाहिए ।
|| महावीर-वाणी ||
सव्वे पाणा न हंतव्वा - किसी प्राणी को आहत मत करो |
सव्वे पाणा न अज्जावेयव्वा - किसी प्राणी पर शासन मत करो, उसे पराधीन मत करें |
सव्वे पाणा न परिघेतव्वा- किसी प्राणी का परिग्रह मत करो, उन्हें दास-दासी मत बनाओ |
सव्वे पाणा न परितावेयव्वा - किसी प्राणी को परितप्त मत करो
मांस खाय ते ढेड़ सब, मद पीवै सो नीच
कुल की दुरगति परिहरै, राम कहैं सो ऊंच
संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि जो मांस खाते हैं वह सब मूर्ख हैं और जो मदिरा पीते हैं वह नीच प्रवृति के हैं। जिनके कुल में इनके सेवन की परंपरा है उनका त्याग कर जो राम का नाम लेते हैं वह ऊंच है और उनका सम्मान करना चाहिऐ।
व्याख्या-आजकल समाज में मांस और मदिरा के सेवन की प्रवृति बढ़ रही है और तो और जिन शादी-विवाहों को हमारे समाज में पवित्र अनुष्ठान माना जाता है उनमें तो अब खुले आम मदिरा का सेवन होता है और कई जगह तो भोजन में मांसाहारी वस्तुएं भी परोसी जाने लगीं हैं। यह हमारे समाज के नैतिक और आध्यात्मिक पतन की चरम सीमा है। अगर कबीर जी के उक्त कथन को देखें और अपने समाज की वर्तमान स्थिति पर आत्ममंथन करें तो पायेंगे कि हम निम्नकोटि के होते जा रहे हैं। पहले कोई शराब पीता था तो कहते थे कि वह नीच है पर आज लोग आधुनिकता के नाम पर मदिरा खुले आम पी रहे हैं।
मगर सत्य तो सत्य हैं बदल नहीं सकता। मांसभक्षण और मदिरा का सेवन अगर आदमी के अधम होने का प्रमाण है तो वह बदल नहीं सकता। दिलचस्प बात यह है कि कबीरदास जी ने सदियों पहले यह बात कही थी वह वह आज भी प्रासंगिक है। हम गर्व करते हैं कि हमारा देश विश्व का आध्यात्मिक गुरु है और नैतिक पतन की तरफ जा रहे हैं। अब तो विदेशों में भी कबीर दर्शन पर चर्चा होने लगी है और हम किताबों में रखी अपनी आध्यात्मिक संपदा को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति को अपना रहे हैं। बेहतर हो हम आत्ममंथन करें। जिस मनुष्य का जन्म और पालन-पोषण माँसाहारी कुल और वातावरणमेँ हुआ है और लड़कपन से जिसका वैसा स्वभाव है, उसके लिए भी माँसाहार सर्वथा त्याज्य है । मनुष्य को विवेक की बड़ी सम्पत्ति प्राप्त है, जब उसको यह समझ आ जाय कि दूसरोँ के द्वारा पीड़ा पहुँचाने पर या मारने पर मुझे दुःख होता है, तभी से उसको यह सोचना चाहिए कि जैसा दुःख मुझको होता है, ऐसा ही दूसरे प्राणियोँ को भी होता है । और दूसरे प्राणियोँ के मरने-मारने के समय होनेवाले भयंकर कष्टको माँसाहारी देखता-सुनता भी है । ऐसी हालतमेँ मनुष्य होने के कारण उसके लिए माँसाहार करना पाप ही है और उसे माँसाहार को पाप समझकर तुरंत ही त्याग देना चाहिए ।
|| महावीर-वाणी ||
सव्वे पाणा न हंतव्वा - किसी प्राणी को आहत मत करो |
सव्वे पाणा न अज्जावेयव्वा - किसी प्राणी पर शासन मत करो, उसे पराधीन मत करें |
सव्वे पाणा न परिघेतव्वा- किसी प्राणी का परिग्रह मत करो, उन्हें दास-दासी मत बनाओ |
सव्वे पाणा न परितावेयव्वा - किसी प्राणी को परितप्त मत करो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें