श्री राम कथा की अमृत वर्षा ...।
श्रीरामचरितमानस गीताप्रेस गोरखपुर ,,
** ** श्री राम चरित मानस का आज का परम पावन पाठ
** बाल कांड ** प्रभु कृपा से--- दोहा संख्या १८२ से आगे
**** चौपाई :
* इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ । सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा । तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा ॥1॥
* देखत भीमरूप सब पापी । निसिचर निकर देव परितापी ॥
करहिं उपद्रव असुर निकाया । नाना रूप धरहिं करि माया ॥2॥
* जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला । सो सब करहिं बेद प्रतिकूला ॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं । नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं ॥3॥
* सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई । देव बिप्र गुरु मान न कोई ॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना । सपनेहु सुनिअ न बेद पुराना ॥4॥
………. भावार्थ :- मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने (मेघनाद ने) मानो पहले से ही कर रखा था (अर्थात् रावण के कहने भर की देर थी, उसने आज्ञापालन में तनिक भी देर नहीं की।) जिनको (रावण ने मेघनाद से) पहले ही आज्ञा दे रखी थी, उन्होंने जो करतूतें की उन्हें सुनो ॥1॥
....... सब राक्षसों के समूह देखने में बड़े भयानक, पापी और देवताओं को दुःख देने वाले थे । वे असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से अनेकों प्रकार के रूप धरते थे ॥2॥
........ जिस प्रकार धर्म की जड़ कटे, वे वही सब वेदविरुद्ध काम करते थे । जिस-जिस स्थान में वे गो और ब्राह्मणों को पाते थे, उसी नगर, गाँव और पुरवे में आग लगा देते थे ॥3॥
......... (उनके डर से) कहीं भी शुभ आचरण (ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि) नहीं होते थे । देवता, ब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था । न हरिभक्ति थी, न यज्ञ, तप और ज्ञान था । वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे ॥4॥
**** छन्द :
* जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा ।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा ॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना ।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना ॥
....... भावार्थ :- जप, योग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ में (देवताओं के) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पाता, तो (उसी समय) स्वयं उठ दौड़ता । कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको पकड़कर विध्वंस कर डालता था । संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों में सुनने में नहीं आता था, जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था ।
**** सोरठा :
* बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं ।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥183॥
....... भावार्थ :- राक्षस लोग जो घोर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके पापों का क्या ठिकाना ॥183॥
** मासपारायण, छठा विश्राम **
***** चौपाई :
* बाढ़े खल बहु चोर जुआरा । जे लंपट परधन परदारा ॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा । साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥1॥
* जिन्ह के यह आचरन भवानी । ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी । परम सभीत धरा अकुलानी ॥2॥
* गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही । जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ।
सकल धर्म देखइ बिपरीता । कहि न सकइ रावन भय भीता ॥3॥
*धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी । गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥
निज संताप सुनाएसि रोई । काहू तें कछु काज न होई ॥4॥
…… भावार्थ :- पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए । लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते थे ॥1॥
........ (श्री शिवजी कहते हैं कि-) हे भवानी ! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना । इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि, अनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो गई ॥2॥
....... (वह सोचने लगी कि) पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वाला) लगता है । पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती ॥3॥
........ (अंत में) हृदय में सोच-विचारकर, गो का रूप धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब देवता और मुनि (छिपे) थे । पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुःख सुनाया, पर किसी से कुछ काम न बना ॥4॥
***** छन्द :
* सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका ।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई ।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥
....... भावार्थ :- तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोक) को गए । भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी । ब्रह्माजी सब जान गए । उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का । (तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि-) जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है ॥
सोरठा :
* धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु ।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥184॥
...... भावार्थ :- ब्रह्माजी ने कहा- हे धरती ! मन में धीरज धारण करके श्री हरि के चरणों का स्मरण करो । प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे ॥184॥
** शेष राम कृपा से अगली बार .... जय जय सिया राम *
श्रीरामचरितमानस
** ** श्री राम चरित मानस का आज का परम पावन पाठ
** बाल कांड ** प्रभु कृपा से--- दोहा संख्या १८२ से आगे
**** चौपाई :
* इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ । सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा । तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा ॥1॥
* देखत भीमरूप सब पापी । निसिचर निकर देव परितापी ॥
करहिं उपद्रव असुर निकाया । नाना रूप धरहिं करि माया ॥2॥
* जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला । सो सब करहिं बेद प्रतिकूला ॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं । नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं ॥3॥
* सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई । देव बिप्र गुरु मान न कोई ॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना । सपनेहु सुनिअ न बेद पुराना ॥4॥
………. भावार्थ :- मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने (मेघनाद ने) मानो पहले से ही कर रखा था (अर्थात् रावण के कहने भर की देर थी, उसने आज्ञापालन में तनिक भी देर नहीं की।) जिनको (रावण ने मेघनाद से) पहले ही आज्ञा दे रखी थी, उन्होंने जो करतूतें की उन्हें सुनो ॥1॥
....... सब राक्षसों के समूह देखने में बड़े भयानक, पापी और देवताओं को दुःख देने वाले थे । वे असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से अनेकों प्रकार के रूप धरते थे ॥2॥
........ जिस प्रकार धर्म की जड़ कटे, वे वही सब वेदविरुद्ध काम करते थे । जिस-जिस स्थान में वे गो और ब्राह्मणों को पाते थे, उसी नगर, गाँव और पुरवे में आग लगा देते थे ॥3॥
......... (उनके डर से) कहीं भी शुभ आचरण (ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि) नहीं होते थे । देवता, ब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था । न हरिभक्ति थी, न यज्ञ, तप और ज्ञान था । वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे ॥4॥
**** छन्द :
* जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा ।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा ॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना ।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना ॥
....... भावार्थ :- जप, योग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ में (देवताओं के) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पाता, तो (उसी समय) स्वयं उठ दौड़ता । कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको पकड़कर विध्वंस कर डालता था । संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों में सुनने में नहीं आता था, जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था ।
**** सोरठा :
* बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं ।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ॥183॥
....... भावार्थ :- राक्षस लोग जो घोर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके पापों का क्या ठिकाना ॥183॥
** मासपारायण, छठा विश्राम **
***** चौपाई :
* बाढ़े खल बहु चोर जुआरा । जे लंपट परधन परदारा ॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा । साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ॥1॥
* जिन्ह के यह आचरन भवानी । ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी । परम सभीत धरा अकुलानी ॥2॥
* गिरि सरि सिंधु भार नहिं मोही । जस मोहि गरुअ एक परद्रोही ।
सकल धर्म देखइ बिपरीता । कहि न सकइ रावन भय भीता ॥3॥
*धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी । गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी ॥
निज संताप सुनाएसि रोई । काहू तें कछु काज न होई ॥4॥
…… भावार्थ :- पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गए । लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते थे ॥1॥
........ (श्री शिवजी कहते हैं कि-) हे भवानी ! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना । इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि, अनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो गई ॥2॥
....... (वह सोचने लगी कि) पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वाला) लगता है । पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती ॥3॥
........ (अंत में) हृदय में सोच-विचारकर, गो का रूप धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब देवता और मुनि (छिपे) थे । पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुःख सुनाया, पर किसी से कुछ काम न बना ॥4॥
***** छन्द :
* सुर मुनि गंधर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरंचि के लोका ।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका ॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई ।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई ॥
....... भावार्थ :- तब देवता, मुनि और गंधर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोक) को गए । भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी । ब्रह्माजी सब जान गए । उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का । (तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि-) जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है ॥
सोरठा :
* धरनि धरहि मन धीर कह बिरंचि हरि पद सुमिरु ।
जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन बिपति ॥184॥
...... भावार्थ :- ब्रह्माजी ने कहा- हे धरती ! मन में धीरज धारण करके श्री हरि के चरणों का स्मरण करो । प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे ॥184॥
** शेष राम कृपा से अगली बार .... जय जय सिया राम *
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