.............पञ्चगव्य चिकित्सा................
१. आक के भली प्रकार पीले पड़े पत्तों को थोड़ा सा गाय का घी चुपड़ कर आग पर रख दें ।जब वे झुलसने लगे ,झटपट निकाल कर निचोंड लें ।इस रस को गर्म अवस्था में ही कान में डालने से तीव्र तथा बहुविधि वेदनायुक्त कर्णशूल शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
२. आँख का फुला जाला-- आंक के दूध में पुरानी रूई को तीन बार तर कर सुखा लें फिर गाय के घी में तर कर बड़ी सी बत्ती बनाकर जला लें । बत्ती जलकर सफ़ेद नहीं होनी चाहिए ,इसे थोड़ी मात्रा मे सलाई से रात्रि के समय आँखों में लगाने से २-३ दिन में लाभ होना प्रारम्भ हो जाता है ।
३. आक के दूध में रूई भिगोकर ,गाय के घी में मलकर दाढ़ में रखने से दाढ़ की पीड़ा मिटती है ।
४. जगंल में घूमती फिरती गाय जब गोबर करती है और वह गोबर सूख जाता है तो इन्हें जगंली कण्डे या आरने कहते है ।जगंली कण्डो की राख को आंक के दूध में तर कर के छाया में सुखा लेना चाहिए । इसमें से १२५ ग्राम सुँघाने से छींक आकर सिर का दर्द , आधा शीशी , ज़ुकाम ,बेहोशी इत्यादि रोगों में लाभ होता है ।गर्भवती स्त्री व बालक इसका प्रयोग ना करें ।
५. आक की कोमल शाखा और फूलों को पीसकर २-३ ग्राम की मात्रा में गाय के घी में सेंक ले ।फिर फिर इसमें गुड मिला ,पाक बना नित्य प्रात: सेवन करने से पुरानी खाँसी जिसमें हरा पीला दुर्गन्ध युक्त चिपचिपा कफ निकलता हो ,शीघ्र दूर होता है ।
६. अाक के पुष्पों की लौंग निकाल कर उसमें सम्भाग सैंधा नमक और पीपल मिलाकर ख़ुद महीन पीस लें ।और मटर जैसी गोली बना कर दो से चार गोली बड़ों और १-२ गोली बच्चों को गाय के दूध साथ देने से बच्चों की खाँसी दूर होती है ।
७. आक के एक पत्ते पर जल के साथ महीन पीसा हुआ कत्था और चूना लगाकर दूसरे पत्ते पर गाय का घी चुपड़कर दोनों पत्तों को परस्पर जोड़ ले ,इस प्रकार पत्तों को तैयार कर मटकी में रखकर जला लें । यह कष्ट दायक श्वास में अति उपयोगी है । छानकर काँच की शीशी में रख लें । १०-३० ग्राम तक गाय का घी ,गेंहू की रोटी या चावल में डालकर खाने से कफ प्रकृति के पुरूषों मे मैथुनशक्ति को पैदा करता है ।तथा कफजन्य व्याधियों को और आंत्रकृमि को नष्ट करता है ।
८. आंक के ताज़े फूलों का दो किलो रस निकाल लें । इसमें आंक का दूध २५० ग्राम और गाय का घी डेढ़ किलो मिलाकर मंद अग्नि पर पकायें । घी मात्र शेष रहने पर छानकर बोतल में भरकर रख लें । इस घी को १ से २ ग्राम की मात्रा में गाय के २५० ग्राम पकायें हुए दूध में मिला कर सेवन करने से आंत्रकृमि नष्ट होकर पाचन शक्ति तथा बवासीर में भी लाभ होता है । शरीर में व्याप्त किसी तरह का विष का प्रभाव हो तो इससे लाभ होता है ,परन्तु यह प्रयोग कोमल प्रकृति वालों को नहीं करना चाहिए ।
९. आंक के ताज़े हरे पत्ते २५० ग्राम और हल्दी २० ग्राम दोनों को महीन पीसकर उड़द के आकार की गोलियाँ बना लें । पहले ताज़े जल के साथ ४ गोली , फिर दूसरे दिन ५ और ६ गोली तक बढ़ाकर घटायें यदि लाभ हो तो पुन उसी प्रकार घटाते बढ़ाते है ,अवश्य लाभ होता है । पथ्य में दूध ,साबूदाना ,जौ का यक्ष देवें ।
१०. आंक के कोमल पत्रों के सम्भाग पाँचों नमक लेकर ,उसमें सबके वज़न से चौथाई तिल का तेल और इतना ही नींबू रस मिला पात्र के मुख को कपड़ मिट्टी से बंद कर आग पर चढ़ा दें । जब पत्र जल जाये तो सब चीज़ों को निकाल पीसकर रख लें । ५०० मिली ग्राम से ३ ग्राम तक आवश्यकतानुसार गर्म जल ,काँजी ,छाछ ,या शराब के साथ लेने से बादी बवासीर नष्ट होती है ।
१. आक के भली प्रकार पीले पड़े पत्तों को थोड़ा सा गाय का घी चुपड़ कर आग पर रख दें ।जब वे झुलसने लगे ,झटपट निकाल कर निचोंड लें ।इस रस को गर्म अवस्था में ही कान में डालने से तीव्र तथा बहुविधि वेदनायुक्त कर्णशूल शीघ्र नष्ट हो जाता है ।
२. आँख का फुला जाला-- आंक के दूध में पुरानी रूई को तीन बार तर कर सुखा लें फिर गाय के घी में तर कर बड़ी सी बत्ती बनाकर जला लें । बत्ती जलकर सफ़ेद नहीं होनी चाहिए ,इसे थोड़ी मात्रा मे सलाई से रात्रि के समय आँखों में लगाने से २-३ दिन में लाभ होना प्रारम्भ हो जाता है ।
३. आक के दूध में रूई भिगोकर ,गाय के घी में मलकर दाढ़ में रखने से दाढ़ की पीड़ा मिटती है ।
४. जगंल में घूमती फिरती गाय जब गोबर करती है और वह गोबर सूख जाता है तो इन्हें जगंली कण्डे या आरने कहते है ।जगंली कण्डो की राख को आंक के दूध में तर कर के छाया में सुखा लेना चाहिए । इसमें से १२५ ग्राम सुँघाने से छींक आकर सिर का दर्द , आधा शीशी , ज़ुकाम ,बेहोशी इत्यादि रोगों में लाभ होता है ।गर्भवती स्त्री व बालक इसका प्रयोग ना करें ।
५. आक की कोमल शाखा और फूलों को पीसकर २-३ ग्राम की मात्रा में गाय के घी में सेंक ले ।फिर फिर इसमें गुड मिला ,पाक बना नित्य प्रात: सेवन करने से पुरानी खाँसी जिसमें हरा पीला दुर्गन्ध युक्त चिपचिपा कफ निकलता हो ,शीघ्र दूर होता है ।
६. अाक के पुष्पों की लौंग निकाल कर उसमें सम्भाग सैंधा नमक और पीपल मिलाकर ख़ुद महीन पीस लें ।और मटर जैसी गोली बना कर दो से चार गोली बड़ों और १-२ गोली बच्चों को गाय के दूध साथ देने से बच्चों की खाँसी दूर होती है ।
७. आक के एक पत्ते पर जल के साथ महीन पीसा हुआ कत्था और चूना लगाकर दूसरे पत्ते पर गाय का घी चुपड़कर दोनों पत्तों को परस्पर जोड़ ले ,इस प्रकार पत्तों को तैयार कर मटकी में रखकर जला लें । यह कष्ट दायक श्वास में अति उपयोगी है । छानकर काँच की शीशी में रख लें । १०-३० ग्राम तक गाय का घी ,गेंहू की रोटी या चावल में डालकर खाने से कफ प्रकृति के पुरूषों मे मैथुनशक्ति को पैदा करता है ।तथा कफजन्य व्याधियों को और आंत्रकृमि को नष्ट करता है ।
८. आंक के ताज़े फूलों का दो किलो रस निकाल लें । इसमें आंक का दूध २५० ग्राम और गाय का घी डेढ़ किलो मिलाकर मंद अग्नि पर पकायें । घी मात्र शेष रहने पर छानकर बोतल में भरकर रख लें । इस घी को १ से २ ग्राम की मात्रा में गाय के २५० ग्राम पकायें हुए दूध में मिला कर सेवन करने से आंत्रकृमि नष्ट होकर पाचन शक्ति तथा बवासीर में भी लाभ होता है । शरीर में व्याप्त किसी तरह का विष का प्रभाव हो तो इससे लाभ होता है ,परन्तु यह प्रयोग कोमल प्रकृति वालों को नहीं करना चाहिए ।
९. आंक के ताज़े हरे पत्ते २५० ग्राम और हल्दी २० ग्राम दोनों को महीन पीसकर उड़द के आकार की गोलियाँ बना लें । पहले ताज़े जल के साथ ४ गोली , फिर दूसरे दिन ५ और ६ गोली तक बढ़ाकर घटायें यदि लाभ हो तो पुन उसी प्रकार घटाते बढ़ाते है ,अवश्य लाभ होता है । पथ्य में दूध ,साबूदाना ,जौ का यक्ष देवें ।
१०. आंक के कोमल पत्रों के सम्भाग पाँचों नमक लेकर ,उसमें सबके वज़न से चौथाई तिल का तेल और इतना ही नींबू रस मिला पात्र के मुख को कपड़ मिट्टी से बंद कर आग पर चढ़ा दें । जब पत्र जल जाये तो सब चीज़ों को निकाल पीसकर रख लें । ५०० मिली ग्राम से ३ ग्राम तक आवश्यकतानुसार गर्म जल ,काँजी ,छाछ ,या शराब के साथ लेने से बादी बवासीर नष्ट होती है ।
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