मंगलवार, 6 अक्टूबर 2015

गाय और आयुर्वेद

गाय और आयुर्वेद


एक बड़ी पुरानी कहावत है, हम गाय नहीं पालते, गाय हमें पालती है। हम भी गाय द्वारा ११ वर्ष पालित रहे हैं। गाय का घर में होना स्वास्थ्य के लिये एक वरदान है। खाने के लिये भरपूर दूध, दही, मठ्ठा, मक्खन और घी। खेत के लिये गोबर और ईँधन के रूप में गोबर के उपले। गोमूत्र से कीटनाशक और गाय के बछड़े से खेत जोतने के लिये बैल। खेत में उपजे गेहूँ से ही चोकर, अवशेष से भूसा और सरसों से खली। अपने आप में परिपूर्ण आर्थिक व्यवस्था का परिचायक है, गाय का घर में होना। एक तृण भी व्यर्थ नहीं जाता है गाय केन्द्रित अर्थव्यवस्था में। पहले के समय यही कारण रहा होगा कि देश का किसान कृषिकार्य में केवल अन्न बेचने ही नगर आता था, उसे कभी कुछ खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी। किसान सम्पन्न था, कृषिकर्म सर्वोत्तम माना जाता था। 

धीरे धीरे अंग्रेजों ने देश की रीढ़ माने जाने वाले कृषकवर्ग को तोड़ दिया, सहन करने से अधिक लगान लगाकर, भूमि अधिग्रहण कानून बनाकर, उपज का न्यून मूल्य निर्धारित करके और भिन्न तरह के अन्यायपूर्ण कानून बना कर। किसी समय चीन के साथ मिलकर भारत विश्व का ७० प्रतिशत अन्न उत्पादन करता था, अंग्रेजों के शासनकाल उसी भारत में १३ बड़े अकाल पड़े, करोड़ों लोगों की मृत्यु हुयी। कृषिकर्म अस्तव्यस्त हो गया, न खेतों में किसी का लगाव रहा और न ही उसकी संरक्षक गाय को संरक्षण मिला, वह कत्लखाने भेजी जाने लगी। १९४३ के बंगाल के अकाल ने देश को झकझोर कर रख दिया था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद प्राथमिकता अन्न उत्पादन पर आत्मनिर्भर बनने की थी, हरित क्रान्ति के माध्यम से हम सफल भी हुये, अन्न आयातक से निर्यातक बन गये। इस पूरी प्रक्रिया में संकर बीज, रासायनिक खाद और कीटनाशक आ गये, गाय केन्द्रित कृषिव्यवस्था बाजार केन्द्रित व्यवस्था में परिवर्तित हो गयी। तीन चार दशक तक रासायनिक खाद और कीटनाशक के प्रयोग ने भूमि की उर्वराशक्ति छीन ली है, आसपास के जल को भी दूषित कर दिया। साथ ही साथ तीक्ष्ण रासायनों से दूषित खाद्यान्न ने हमारे स्वास्थ्य पर भी अत्यन्त नकारात्मक प्रभाव डाला है। 

कृषि व्यवस्था से गाय की अनुपस्थिति ने न केवल भूमि को उसकी उत्पादकता से वंचित किया, वरन हमारे स्वास्थ्य में भी कैंसर आदि जैसे असाध्य रोगों को भर दिया। यही चिन्ता रही होगी कि विश्व आज प्राकृतिक या ऑर्गेनिक खेती की ओर मुड़ रहा है और इस प्रकार उत्पन्न खाद्यान्न और शाकादि सामान्य से कहीं अधिक मँहगे मूल्य में मिलते हैं।

गाय का पौराणिक चित्र, सब देव इसमें बसते हैं
जो महत्व गाय का हमारी कृषि व्यवस्था में रहा है और जिसके कारण हमारा स्वास्थ्य संरक्षित रहने की निश्चितता थी, वही महत्व गाय का आयुर्वेद में भी रहा है। आयुर्वेद में गाय के सारे उत्पादों को महत्व का माना गया है, दूध, दही, छाछ, मक्खन, घी, गोमूत्र और गोबर। आयुर्वेद में आठ तरह का दूध वर्णित है और उसमें सर्वोत्तम दूध का माना गया है। यह दूध आँखों, हृदय और मस्तिष्क के लिये अत्यन्त उपयोगी है। दूध रस और विपाक में मधुर, स्निग्ध, ओज और धातुओं को बढाने वाला, वातपित्त नाशक, शुक्रवर्धक, कफवर्धक, गुरु और शीतल होता है। गाय का दूध पचाने में आसान होता है, माँ के दूध के पश्चात बच्चों के लिये गाय का ही दूध सबसे अच्छा माना गया है। देशी गाय का दूध जर्सी गाय से कहीं अच्छा होता है, यह शरीर में प्रतिरोधक क्षमता, बुद्धि और स्मरणशक्ति बढ़ाता है। गाय के दूध में विटामिन डी होता है जो कैल्शियम के अवशोषण में सहायता करता है।

जो गायें आलस्य कर बैठी रहती हैं, उनका दूध भी गाढ़ा रहता है, जैसे जर्सी गायें, पर उनमें औषधीय गुण कम रहते हैं। जो गायें चरने जाती हैं, उनका दूध थोड़ा पतला होता है, पर वह बहुत ही अच्छा होता है, उसमें औषधीय गुण अधिक होते हैं। यही कारण है कि सुबह का दूध थोड़ा गाढ़ा होता है, शाम को चर के आने के बाद थोड़ा पलता होता है। हरे पत्ते आदि खाने से वह और भी अच्छा हो जाता है। बकरी छोटी छोटी पत्तियाँ खाती हैं, उसके दूध में औषधीय गुण आ जाते हैं। चरने वाली देशी गाय का सर्वोत्तम होती है।

दही तनिक खट्टा होता है, बाँधने के गुण से युक्त होता है, पचाने में दूध से अधिक गरिष्ठ, वातनाशक, कफपित्तवर्धक और धातुवर्धक होता है। छाछ या मठ्ठा आयुर्वेद की दृष्टि से और भी लाभकारी होता है, यह कफनाशक और पेट के कई रोगों में अत्यन्त प्रभावी होता है। मक्खन आयुर्वेदीय दृष्टि से कई गुणों से पूर्ण रहता है, यह घी जैसा गरिष्ठ नहीं होता है पर रोटी आदि में लगा कर खाया जा सकता है। घी का प्रयोग आयुर्वेद में विस्तृत रूप से किया जाता है। दूध के इस रूप को अधिक समय तक संरक्षित रखा जा सकता है तथा पंचकर्म में स्नेहन आदि से लेकर औषधियाँ बनाने में इसका उपयोग होता है। यही नहीं, भोजन को स्वादिष्ट बनाने के कारण यह प्रतिदिन पर्याप्त मात्रा में खाया जा सकता है। घी सर्वश्रेष्ठ पित्तनाशक माना जाता है।

जो गाय दूध न भी देती हो, वह भी आयुर्वेद की दृष्टि से अत्यन्त लाभदायक है। गोबर को कृषि कार्यों में उपयोग करने के अतिरिक्त गोबर के ऊपर बनायी भस्मों की क्षमता कोयले पर बनायी भस्मों से कहीं अधिक होती है। वहीं दूसरी ओर गोमूत्र का होना हमारे लिये वरदान है। गोमूत्र वात और कफ को तो समाप्त कर देता है, पित्त को कुछ औषधियों के साथ समाप्त कर देता है। पानी के अतिरिक्त  इसमें कैल्शियम, आयरन, सल्फर, सिलीकॉन, बोरॉन आदि है। यही तत्व हमारे शरीर में हैं, यही तत्व मिट्टी में भी हैं, यह प्रकृति के सर्वाधिक निकट है, संभवतः इसीलिये सर्वाधिक उपयोगी भी। देशी गाय, जो अधिक चैतन्य रहती हो, उसका मूत्र सर्वोत्तम है। उसमें पाया जाने वाला सल्फर त्वचा के रोगों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। खाँसी के रोगों में भी गोमूत्र बहुत लाभदायक है। टीबी के रोगियों पर किये प्रयोगों से अत्यधिक लाभ मिले हैं, यह शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बहुत अधिक बढ़ा देता है। गोमूत्र के प्रयोग कैंसर पर भी चल रहे हैं। जब शरीर में कर्क्यूमिन नामक रसायन कम होता है तो कैंसर हो जाता है। यह रसायन हल्दी के अतिरिक्त गोमूत्र में भरपूर मात्रा में है। इसका सेवन करने में लोग भले ही नाक भौं सिकोड़ते हों, पर वैद्य आज भी गोमूत्र अपनी विभिन्न औषधियों में देते हैं। आँख और कान के रोगों में गोमूत्र का बहुत लाभ है, क्योंकि आँख के रोग आँख में कफ बढ़ने से होता है। गाय का पंचामृत आयुर्वेद के अनुसार अत्यधिक उपयोगी है। 

कुतर्क हो सकता है कि यदि यह इतना ही उपयोगी होता तो गाय उसे छोड़ती ही क्यों, अपने उपयोग में क्यों नहीं ले आती। गाय को तभी तो माता कहा जाता है, क्योंकि गाय यह मूत्र हमारे उपयोग के लिये ही छोड़ती है। गोमूत्र गाय का प्रमुख उपहार है, दूध तो कुछ दिनों के लिये ही देती है। गोबर से उपले और खाद बनती है। जो गाय चरती है, उसके ही उत्पाद और गोमूत्र उपयोगी होता है। जर्सी गाय के मूत्र में तीन ही पोषक घटक है, जबकि देशी गाय के मूत्र में १० पोषक घटक हैं। कभी गाय का पौराणिक चित्र देखा हो तो गाय के मूत्र में धनवन्तरि, गोबर में लक्ष्मी, गले में शंकर बसते हैं। गोबर की खाद से खेती, उपले से ईँधन। गोबर गैस से ईंधन और गाड़ी भी चलायी जा सकती है। पेस्टीसाइट गोमूत्र से मिलता है। गाय हर प्रकार के विष अपने शरीर में ही सोख लेती है, तभी  गले में शंकर का वास माना गया है। इस प्रकार उसके शरीर से जो कुछ भी प्राप्त होता है, सारा का सारा मानव के लिये अत्यन्त उपयोगी है। गाय का संरक्षण हर प्रकार से आवश्यक है, मैंने पाली है, सच में बहुत अधिक आनन्द मिलता है।

यदि आधुनिकता पोषित रोगों के दुष्चक्र से निकलना है तो गाय को संरक्षित करना पड़ेगा। गाय हमारी सामाजिक व्यवस्था का प्राण है। तभी कहावत याद आती है कि हम गाय नहीं पाल सकते, गाय हमें पालती है। कुछ गायें थोड़ा कम दूध देती हैं। पर जो गाय दूध कम देती है, उसके बछड़े मज़बूत होते है। जो गाय अधिक दूध देती है, उसके बछड़े कमज़ोर होते हैं। गाय पालन के प्रति सबके मन में श्रद्धा है, मैंने अपने परिवार में देखा है, पिताजी में देखा है, सुबह से शाम तक प्रेम से गाय की सेवा करते हैं, घंटों उसके पास बैठे रहते हैं। कहते हैं कि जिस घर में गाय रहती है और जिस किसान के पास गाय रहती है, उन दोनों स्थानों पर भाग्य स्वयं आकर बसता है। काश, हमारी गायों का भी भाग्य सँवरे और वे पुनः हमारा भाग्य सँवारें। इति आयुर्वेद चर्चा।

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